घुश्मा की शिवभक्ति से उसके मरे हुए पुत्र का जीवित होना, घुश्मेश्वर शिव का प्रादुर्भाव तथा उनकी महिमा का वर्णन
सूतजी कहते हैं – अब मैं घुश्मेश नामक ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव का और उसके माहात्म्य का वर्णन करूँगा। मुनिवरो! ध्यान देकर सुनो। दक्षिण दिशा में एक श्रेष्ठ पर्वत है, जिसका नाम देवगिरि है। वह देखने में अद्भुत तथा नित्य परम शोभा से सम्पन्न है। उसी के निकट कोई भरद्वाजकुल में उत्पन्न सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण रहते थे। उनकी प्रिय पत्नी का नाम सुदेहा था, वह सदा शिवधर्म के पालन में तत्पर रहती थी, घर के काम-काज में कुशल थी और सदा पति की सेवा में लगी रहती थी। द्विजश्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं और अतिथियों के पूजक थे। वे वेदवर्णित मार्ग पर चलते और नित्य अग्निहोत्र किया करते थे। तीनों काल की संध्या करने से उनकी कान्ति सूर्य के समान उद्दीप्त थी। वे वेद-शास्त्र के मर्मज्ञ थे और शिष्यों को पढ़ाया करते थे। धनवान् होने के साथ ही बड़े दाता थे। सौजन्य आदि सद्गुणों के भाजन थे। शिवसम्बन्धी पूजनादि कार्य में ही सदा लगे रहते थे। वे स्वयं तो जिवभक्त थे ही, शिवभक्तों से बड़ा प्रेम रखते थे। शिवभक्तों को भी वे बहुत प्रिय थे।
यह सब कुछ होने पर भी उनके पुत्र नहीं था। इससे ब्राह्मण को तो दुःख नहीं होता था, परंतु उनकी पत्नी बहुत दुःखी रहती थी। पड़ोसी और दूसरे लोग भी उसे ताना मारा करते थे। वह पति से बार-बार पुत्र के लिये प्रार्थना करती थी। पति उसको ज्ञानोपदेश देकर समझाते थे, परंतु उसका मन नहीं मानता था। अन्ततोगत्वा ब्राह्मण ने कुछ उपाय भी किया, परंतु वह सफल नहीं हुआ। तब ब्राह्मणी ने अत्यन्त दुःखी हो बहुत हठ करके अपनी बहिन घुश्मा से पति का दूसरा विवाह करा दिया। विवाह से पहले सूधर्मा ने उसको समझाया कि 'इस समय तो तुम बहिन से प्यार कर रही हो; परंतु जब इसके पुत्र हो जायगा, तब इससे स्पर्धा करने लगोगी।' उसने वचन दिया कि मैं बहिन से कभी डाह नहीं करूँगी। विवाह हो जाने पर घुश्मा दासी की भाँति बड़ी बहिन की सेवा करने लगी। सुदेहा भी उसे बहुत प्यार करती रही। घुश्मा अपनी शिवभक्ता बहिन की आज्ञा से नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर विधिपूर्वक पूजा करने लगी। पूजा करके वह निकटवर्ती तालाब में उनका विसर्जन कर देती थी।
शंकरजी की कृपा से उसके एक सुन्दर सौभाग्यवान् और सदगुणसम्पन्न पुत्र हुआ। घुश्मा का कुछ मान बढ़ा। इससे सुदेहा के मन में डाह पैदा हो गयी। समय पर उस पुत्र का विवाह हुआ। पुत्रवधू घर में आ गयी। अब तो वह और भी जलने लगी। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी और एक दिन उसने रात में सोते हुए पुत्र को छुरे से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके मार डाला और कटे हुए अंगों को उसी तालाब में ले जाकर डाल दिया, जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिवलिंगों का विसर्जन करती थी। पुत्र के अंगों को उस तालाब में फेंककर वह लौट आयी और घर में सुखपूर्वक सो गयी। घुश्मा सबेरे उठकर प्रतिदिन का पूजनादि कर्म करने लगी। श्रेष्ठ ब्राह्मण सुधर्मा स्वयं भी नित्यकर्म में लग गये। इसी समय उनकी ज्येष्ठ पत्नी सुदेहा भी उठी और बड़े आनन्द से घर के काम-काज करने लगी; क्योंकि उसके हृदय में पहले जो ईर्ष्या की आग जलती थी, वह अब बुझ गयी थी। प्रातःकाल जब बहु ने उठकर पति की शय्या को देखा तो वह खून से भीगी दिखायी दी और उस पर शरीर के कुछ टुकड़े दृष्टिगोचर हुए, इससे उसको बड़ा दुःख हुआ। उसने सास (घुश्मा) के पास जाकर निवेदन किया – 'उत्तम व्रत का पालन करने वाली आर्य! आपके पुत्र कहाँ गये? उनकी शय्या रक्त से भीगी हुई है और उस पर शरीर के कुछ टुकड़े दिखायी देते हैं। हाय! मैं मारी गयी! किसने यह दुष्ट कर्म किया है?' ऐसा कहकर वह बेटे की प्रिय पत्नी भाँति-भाँति से करुण विलाप करती हुई रोने लगी। सुधर्मा की बड़ी पत्नी सुदेहा भी उस समय 'हाय! मैं मारी गयी।' ऐसा कहकर दुःख में डूब गयी। उसने ऊपर से तो दुःख किया, किंतु मन-ही-मन वह हर्ष से भरी हुई थी! घुश्मा भी उस समय उस वधू के दुःख को सुनकर अपने नित्य पार्थिव- पूजन के व्रत से विचलित नहीं हुई। उसका मन बेटे को देखने के लिये तनिक भी उत्सुक नहीं हुआ। उसके पति की भी ऐसी ही अवस्था थी। जब तक नित्य-नियम पूरा नहीं हुआ, तब तक उन्हें दूसरी किसी बात की चिन्ता नहीं हुई। दोपहर को पूजन समाप्त होने पर घुश्मा ने अपने पुत्र की भयंकर शय्या पर दृष्टिपात किया, तथापि उसने मन में किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं माना। वह सोचने लगी – 'जिन्होंने यह बेटा दिया था, वे ही इसकी रक्षा करेंगे। वे भक्तप्रिय कहलाते हैं, काल के भी काल हैं और सत्पुरुषों के आश्रय हैं। एकमात्र वे प्रभु सर्वेश्वर शम्भु ही हमारे रक्षक हैं। वे माला गूँथनेवाले पुरुष की भाँति जिनको जोड़ते हैं, उनको अलग भी करते हैं। अतः अब मेरे चिन्ता करने से क्या होगा।' इस तत्त्व का विचार करके उसने शिव के भरोसे धैर्य धारण किया और उस समय दुःख का अनुभव नहीं किया। वह पूर्ववत् पार्थिव शिवलिंगों को लेकर स्वस्थचित्त से शिव के नामों का उच्चारण करती हुई उस तालाब के किनारे गयी। उन पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर जब वह लौटने लगी तो उसे अपना पुत्र उसी तालाब के किनारे खड़ा दिखायी दिया।
सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! उस समय वहाँ अपने पुत्र को जीवित देखकर उसकी माता घुश्मा को न तो हर्ष हुआ और न विषाद। वह पूर्ववत् स्वस्थ बनी रही। इसी समय उस पर संतुष्ट हुए ज्योतिःस्वरूप महेश्वर शिव शीघ्र उसके सामने प्रकट हो गये।
शिव बोले – सुमुखि! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। वर माँगो। तेरी दुष्टा सौत ने इस बच्चे को मार डाला था। अतः मैं उसे त्रिशूल से मारूँगा।
सूतजी कहते हैं – तब घुश्मा ने शिव को प्रणाम करके उस समय यह वर माँगा – 'नाथ! यह सुदेहा मेरी बड़ी बहिन है, अतः आपको इसकी रक्षा करनी चाहिये।'
शिव बोले – उसने तो बड़ा भारी अपकार किया है, तुम उस पर उपकार क्यों करती हो? दुष्ट कर्म करने वाली सुदेहा तो मार डालने के ही योग्य है।
घश्मा ने कहा – देव! आपके दर्शन मात्र से पातक नहीं ठहरता। इस समय आपका दर्शन करके उसका पाप भस्म हो जाय। 'जो अपकार करनेवालों पर भी उपकार करता है, उसके दर्शन मात्र से पाप बहुत दूर भाग जाता है।' प्रभो! यह अद्भुत भगवद्वाक्य मैंने सुन रखा है। इसलिये सदाशिव! जिसने ऐसा कुकर्म किया है, वही करे; मैं ऐसा क्यों करूँ (मुझे तो बुरा करनेवाले का भी भला ही करना है)।
सूतजी कहते हैं – घुश्मा के ऐसा कहने पर दयासिन्धु भक्तवत्सल महेश्वर और भी प्रसन्न हुए तथा इस प्रकार बोले – 'घुश्मे! तुम कोई और भी वर माँगो। मैं तुम्हारे लिये हितकर वर अवश्य दूँगा; क्योंकि तुम्हारी इस भक्ति से और विकारशून्य स्वभाव से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।'
भगवान् शिव की बात सुनकर घुश्मा बोली – 'प्रभो! यदि आप वर देना चाहते हैं तो लोगों की रक्षा के लिये सदा यहाँ निवास कीजिये और मेरे नाम से ही आपकी ख्याति हो।' तब महेश्वर शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा – मैं तुम्हारे ही नाम से घुश्मेश्वर कहलाता हुआ सदा यहाँ निवास करूँगा और सबके लिये सुखदायक होऊँगा। मेरा शुभ ज्योतिर्लिंग घुश्मेश नाम से प्रसिद्ध हो। यह सरोवर शिवलिंगों का आलय हो जाय और इसीलिये इसकी तीनों लोकों में शिवालय नाम से प्रसिद्धि हो। यह सरोवर सदा दर्शन मात्र से सम्पूर्ण अभीष्टों का देनेवाला हो। सुव्रते! तुम्हारे वंश में होने वाली एक सौ एक पीढ़ियों तक ऐसे ही श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न होंगे, इसमें संशय नहीं है। वे सब-के-सब सुन्दरी स्त्री, उत्तम धन और पूर्ण आयु से सम्पन्न होंगे, चतुर और विद्वान् होंगे, उदार तथा भोग और मोक्षरूपी फल पाने के अधिकारी होंगे। एक सौ एक पीढ़ियों तक सभी पुत्र गुणों में बढ़े-चढ़े होंगे। तुम्हारे वंश का ऐसा विस्तार बड़ा शोभादायक होगा।'
ऐसा कहकर भगवान् शिव वहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गये। उनकी घुश्मेश नाम से प्रसिद्धि हुई और उस सरोवर का नाम शिवालय हो गया। सुधर्मा, घुश्मा और सुदेहा – तीनों ने आकर तत्काल ही उस शिवलिंग की एक सौ एक दक्षिणावर्त परिक्रमा की। पूजा करके परस्पर मिलकर मन का मैल दूर करके वे सब वहाँ बड़े सुख का अनुभव करने लगे। पुत्र को जीवित देख सुदेहा बहुत लज्जित हुई और पति तथा घुश्मा से क्षमा-प्रार्थना करके उसने अपने पाप के निवारण के लिये प्रायश्चित्त किया। मुनीश्वरो! इस प्रकार वह घुश्मेश्वर लिंग प्रकट हुआ। उसका दर्शन और पूजन करने से सदा सुख की वृद्धि होती है। ब्राह्मणो! इस तरह मैंने तुमसे बारह ज्योतिर्लिंगों की महिमा बतायी। ये सभी लिंग सम्पूर्ण कामनाओं के पूरक तथा भोग और मोक्ष देने वाले हैं। जो इन ज्योतिर्लिंगों की कथा को पढ़ता और सुनता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता तथा भोग और मोक्ष पाता है।
(अध्याय ३२ - ३३)