शिवरात्रि-व्रत के उद्यापन की विधि
ऋषि बोले – सूतजी! अब हमें शिवरात्रि व्रत के उद्यापन की विधि बताइये, जिसका अनुष्ठान करने से साक्षात् भगवान् शंकर निश्चय ही प्रसन्न होते हैं।
सूतजी ने कहा – ऋषियो! तुम लोग भक्तिभाव से आदरपूर्वक शिवरात्रि के उद्यापन की विधि सुनो, जिसका अनुष्ठान करने से वह व्रत अवश्य ही पूर्ण फल देनेवाला होता है। लगातार चौदह वर्षों तक शिवरात्रि के शुभव्रत का पालन करना चाहिये। त्रयोदशी को एक समय भोजन करके चतुर्दशी को पूरा उपवास करना चाहिये। शिवरात्रि के दिन नित्यकर्म सम्पन्न करके शिवालय में जाकर विधिपूर्वक शिव का पूजन करे। तत्पश्चात् वहाँ यत्नपूर्वक एक दिव्य मण्डल बनवाये, जो तीनों लोकों में गौरीतिलक नाम से प्रसिद्ध है। उसके मध्य-भाग में दिव्य लिंगतोभद्र मण्डल की रचना करे अथवा मण्डप के भीतर सर्वतोभद्र मण्डल का निर्माण करे। वहाँ प्राजापत्य नामक कलशों की स्थापना करनी चाहिये। वे शुभ कलश वस्त्र, फल और दक्षिणा के साथ होने चाहिये। उन सबको मण्डप के पार्श्वभाग में यत्नपूर्वक स्थापित करे। मण्डप के मध्य-भाग में एक सोने का अथवा दूसरी धातु ताँबे आदि का बना हुआ कलश स्थापित करे। व्रती पुरुष उस कलश पर पार्वती सहित शिव की सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर रखे। वह प्रतिमा एक पल (तोले) अथवा आधे पल सोने की होनी चाहिये या जैसी अपनी शक्ति हो, उसके अनुसार प्रतिमा बनवा ले। वामभाग में पार्वत की और दक्षिण भाग में शिव की प्रतिमा स्थापित करके रत्रि में उनका पूजन करे। आलस्य छोड़कर पूजन का काम करना चाहिये। उस कार्य में चार ऋत्विजों के साथ एक पवित्र आचार्य का वरण करे और उन सबकी आज्ञा लेकर भक्तिपूर्वक शिव की पूजा करे। रात को प्रत्येक प्रहर में पृथक-पृथक पूजा करत हुए जागरण करे। व्रती पुरुष भगवत्सम्बन्धी कीर्तन, गीत एवं नृत्य आदि के द्वारा सारी रात बिताये। इस प्रकार विधिवत् पूजनपूर्वक भगवान् शिव को संतुष्ट करके प्रातःकाल पुनः पूजन करने के पश्चात् सविधि होम करे। फिर यथाशक्ति प्राजापत्य विधान करे। फिर ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक भोजन कराये और यथाशक्ति दान दे।
इसके बाद वस्त्र, अलंकार तथा आभूषणों द्वारा पत्नी सहित ऋत्विजों को अलंकृत करके उन्हें विधिपूर्वक पथक्-पथक् दान दे। फिर आवश्यक सामग्रियों से युक्त बछड़े सहित गौ का आचार्य को यह कहकर विधिपूर्वक दान दे कि इस दान से भगवान् शिव मुझ पर प्रसन्न हों। तत्पश्चात् कलश सहित उस मूर्ति को वस्त्र के साथ वृषभ की पीठ पर रखकर सम्पूर्ण अलंकारों सहित उसे आचार्य को अर्पित कर दे। इसके बाद हाथ जोड़ मस्तक झुका बड़े प्रेम से गदगद वाणी में महाप्रभु महेश्वरदेव से प्रार्थना करे।
प्रार्थना
देवदेव महादेव शरणागतवत्सल।
व्रतेनानेन देवेश कृपां कुरु ममोपरि॥
मया भक्त्यनुसारेण व्रतमेतत् कृतं शिव।
न्यूनं सम्पूर्णतां यातु प्रसादात्तव शङ्कर॥
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपूजादिकं मया।
कृतं तदस्तु कृपया सफलं तव शङ्कर॥
'देवदेव! महादेव! शरणागतवत्सल! देवेश्वर! इस व्रत से संतुष्ट हो आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये। शिव-शंकर! मैंने भक्तिभाव से इस व्रत का पालन किया है। इसमें जो कमी रह गयी हो, वह आपके प्रसाद से पूरी हो जाय। शंकर! मैंने अनजान में या जान-बुझकर जो जप-पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपा से सफल हो।'
इस तरह परमात्मा शिव को पुष्पांजलि अर्पण करके फिर नमस्कार एवं प्रार्थना करे। जिसने इस प्रकार व्रत पूरा कर लिया, उसके उस व्रत में कोई न्यूनता नहीं रहती। उससे वह मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है।
(अध्याय ३९)