अनजान में शिवरात्रि-व्रत करने से एक भील पर भगवान् शंकर की अद्भुत कृपा

ऋषियों ने पूछा – सूतजी! पूर्वकाल में किसने इस उत्तम शिवरात्रि-व्रत का पालन किया था और अनजान में भी इस व्रत का पालन करके किसने कौन-सा फल प्राप्त किया था?

सूतजी ने कहा – ऋषियो! तुम सब लोग सुनो! मैं इस विषय में एक निषाद का प्राचीन इतिहास सुनाता हूँ, जो सब पापों का नाश करनेवाला है। पहले की बात है – किसी वन में एक भील रहता था, जिसका नाम था – गुरुद्रुह। उसका कुटम्ब बड़ा था तथा वह बलवान् और क्रूर स्वभाव का होने के साथ ही क्रूरतापूर्ण कर्म में तत्पर रहता था। वह प्रतिदिन वन में जाकर मृगों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोरियाँ करता था। उसने बचपन से ही कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया था। इस प्रकार वन में रहते हुए उस दुरात्मा भील का बहुत समय बीत गया। तदनन्तर एक दिन बड़ी सुन्दर एवं शुभकारक शिवरात्रि आयी। किंतु वह दुरात्मा घने जंगल में निवास करनेवाला था, इसलिये उस व्रत को नहीं जानता था। उसी दिन उस भील के माता-पिता और पत्नी ने भूख से पीड़ित होकर उससे याचना की – 'वनेचर! हमें खाने को दो।'

उनके इस प्रकार याचना करने पर वह तुरंत धनुष लेकर चल दिया और मृगों के शिकार के लिये सारे वन में घूमने लगा। दैवयोग से उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। इससे उसको बड़ा दुःख हुआ और वह सोचने लगा – 'अब मैं क्या करूँ! कहाँ जाऊँ? आज तो कुछ नहीं मिला। घर में जो बच्चे हैं, उनका तथा माता-पिता का क्या होगा? मेरी जो पत्नी है, उसकी भी क्या दशा होगी? अतः मुझे कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये; अन्यथा नहीं।' ऐसा सोचकर वह व्याध एक जलाशय के समीप पहुँचा और जहाँ पानी में उतरने का घाट था, वहाँ जाकर खड़ा हो गया। वह मन-ही-मन यह विचार करता था कि 'यहाँ कोई-न-कोई जीव पानी पीने के लिये अवश्य आयेगा। उसी को मारकर कृतकृत्य हो उसे साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को जाऊँगा।' ऐसा निश्चय करके वह व्याध एक बेल के पेड़ पर चढ़ गया और वहीं जल साथ लेकर बैठ गया। उसके मन में केवल यही चिन्ता थी कि कब कोई जीव आयेगा और कब मैं उसे मारूँगा। इसी प्रतीक्षा में भूख-प्यास से पीड़ित हो वह बैठा रहा। उस रात के पहले पहर में एक प्यासी हरिणी वहाँ आयी, जो चकित होकर जोर-जोर से चौकड़ी भर रही थी। ब्राह्णो! उस मृगी को देखकर व्याध को बड़ा हर्ष हुआ और उसने तुरंत ही उसके वध के लिये अपने धनुष पर एक बाण का संधान किया। ऐसा करते हुए उसके हाथ के धक्के से थोड़ा-सा जल और बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े। उस पेड़ के नीचे शिवलिंग था। उक्त जल और बिल्वपत्र से शिव की प्रथम प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गयी। उस पूजा के माहात्म्य से उस व्याध का बहुत-सा पातक तत्काल नष्ट हो गया। वहाँ होने वाली खड़खड़ाहट की आवाज को सुनकर हरिणी ने भय से ऊपर की ओर देखा। व्याध को देखते ही वह व्याकुल हो गयी और बोली –

मृगी ने कहा – व्याध! तुम क्या करना चाहते हो मेरे सामने सच-सच बताओ।

हरिणी की वह बात सुनकर व्याध ने कहा – आज मेरे कुटुम्ब के लोग भूखे हैं; अतः तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊँगा, उन्हें तृप्त करूँगा।

व्याध का वह दारुण वचन सुनकर तथा जिसे रोकना कठिन था, उस दुष्ट भील को बाण ताने देखकर मृगी सोचने लगी कि 'अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? अच्छा कोई उपाय रचती हूँ।' ऐसा विचार कर उसने वहाँ इस प्रकार कहा।

मृगी बोली – भील! मेरे मांस से तुमको सुख होगा, इस अनर्थकारी शरीर के लिये इससे अधिक महान् पुण्य का कार्य और क्या हो सकता है? उपकार करनेवाले प्राणी को इस लोक में जो पुण्य प्राप्त होता है, उसका सौ वर्षों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता। परंतु इस समय मेरे सब बच्चे मेरे आश्रम में ही हैं। मैं उन्हें अपनी बहिन को अथवा स्वामी को सौंपकर लौट आऊँगी। वनेचर! तुम मेरी इस बात को मिथ्या न समझो। मैं फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी, इसमें संशय नहीं है। सत्य से ही धरती टिकी हुई है, सत्य से ही समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित है और सत्य से ही निर्झरों से जल की धाराएँ गिरती रहती हैं। सत्य में ही सब कुछ स्थित है।

सूतजी कहते हैं – मृगी के ऐसा कहने पर भी जब व्याध ने उसकी बात नहीं मानी, तब उसने अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत हो पुनः इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

मृगी बोली – व्याध! सुनो, मैं तुम्हारे सामने ऐसी शपथ खाती हूँ, जिससे घर जाने पर मैं अवश्य तुम्हारे पास लौट आऊँगी। ब्राह्मण यदि वेद बेचे और तीनों काल संध्या न करे तो उसे जो पाप लगता है, पति की आज्ञा का उल्लंघन करके स्वेच्छानुसार कार्य करने वाली स्त्रियों को जिस पाप की प्राप्ति होती है, किये हुए उपकार को न माननेवाले, भगवान् शंकर से विमुख रहनेवाले, दूसरों से द्रोह करनेवाले, धर्म को लाँघनेवाले तथा विश्वासघात और छल करनेवाले लोगों को जो पाप लगता है, उसी पाप से में भी लिप्त हो जाऊँ, यदि लौटकर यहाँ न आऊँ।

इस तरह अनेक शपथ खाकर जब मृगी चुपचाप खड़ी हो गयी, तब उस व्याध ने उस पर विश्वास करके कहा – 'अच्छा, अब तुम अपने घर को जाओ।' तब वह मृगी बड़े हर्ष के साथ पानी पीकर अपने आश्रम-मण्डल में गयी। इतने में ही रात का वह पहला प्रहर व्याध के जागते-ही-जागते बीत गया। तब उस हिरनी की बहिन दूसरी मृगी, जिसका पहली ने स्मरण किया था, उसी की राह देखती हुई जल पीने के लिये वहाँ आ गयी। उसे देखकर भील ने स्वयं बाण को तरकश से खींचा। ऐसा करते समय पुनः पहले की भाँति भगवान् शिव के ऊपर जल और बिल्वपत्र गिरे। उसके द्वारा महात्मा शम्भु की दूसरे प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गयी। यद्यपि वह प्रसंगवश ही हुई थी, तो भी व्याध के लिये सुखदायिनी हो गयी। मृगी ने उसे बाण खींचते देख पूछा – वनेचर! यह क्या करते हो?' व्याध ने पूर्ववत् उत्तर दिया – 'मैं अपने भूखे कुटम्ब को तृप्त करने के लिये तुझे मारूँगा।' यह सुनकर वह मृगी बोली।

मृगी ने कहा – व्याध! मेरी बात सुनो। मैं धन्य हूँ। मेरा देह-धारण सफल हो गया; क्योंकि इस अनित्य शरीर के द्वारा उपकार होगा। परंतु मेरे छोटे-छोटे बच्चे घर में हैं। अतः मैं एक बार जाकर उन्हें अपने स्वामी को सौंप दूँ, फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी।

व्याध बोला – तुम्हारी बात पर मुझे विश्वास नहीं है। मैं तुझे मारूँगा, इसमें संशय नहीं है।

यह सुनकर वह हरिणी भगवान् विष्णु की शपथ खाती हुई बोली – 'व्याध! जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे सुनो। यदि में लौटकर न आऊँ तो अपना सारा पुण्य हार जाऊँ; क्योंकि जो वचन देकर उससे पलट जाता है, वह अपने पुण्य को हार जाता है। जो पुरुष अपनी विवाहिता स्त्री को त्यागकर दूसरी के पास जाता है, वैदिक धर्म का उल्लंघन करके कपोलकल्पित धर्म पर चलता है, भगवान् विष्णु का भक्त होकर शिव की निन्दा करता है, माता-पिता की निधन-तिथि को श्राद्ध आदि न करके उसे सूना बिता देता है तथा मन में संताप का अनुभव करके अपने दिये हुए वचन को पूरा करता है, ऐसे लोगों को जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि में लौटकर न आऊँ।'

सूतजी कहते हैं – उसके ऐसा कहने पर व्याध ने उस मृगी से कहा – 'जाओ।' मृगी जल पीकर हर्षपूर्वक अपने आश्रम को गयी। इतने में ही रात का दूसरा प्रहर भी व्याध के जागते-जागते बीत गया। इसी समय तीसरा प्रहर आरम्भ हो जाने पर मृगी के लौटने में बहुत विलम्ब हुआ जान चकित हो व्याध उसकी खोज करने लगा। इतने में ही उसने जल के मार्ग में एक हिरन को देखा। वह बड़ा हृष्ट-पुष्ट था। उसे देखकर वनेचर को बड़ा हर्ष हुआ और वह धनुष पर बाण रखकर उसे मार डालने को उद्यत हुआ। ऐसा करते समय उसके प्रारब्धवश कुछ जल और बिल्वपत्र शिवलिंग पर गिरे, उससे उसके सौभाग्य से भगवान् शिव की तीसरे प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गयी। इस तरह भगवान् ने उस पर अपनी दया दिखायी। पत्तों के गिरने आदि का शब्द सुनकर उस मृग ने व्याध की ओर देखा और पूछा – 'क्या करते हो?' व्याध ने उत्तर दिया – 'मैं अपने कुटम्ब को भोजन देने के लिये तुम्हारा वध करूँगा।' व्याध की यह बात सुनकर हरिण के मन में बड़ा हर्ष हुआ और तुरंत ही व्याध से इस प्रकार बोला।

हरिण ने कहा – मैं धन्य हूं। मेरा हृष्ट-पुष्ट होना सफल हो गया; क्योंकि मेरे शरीर से आप लोगों की तृप्ति होगी। जिसका शरीर परोपकार के काम में नहीं आता, उसका सब कुछ व्यर्थ चला गया। जो सामर्थ्य रहते हुए भी किसी का उपकार नहीं करता है, उसकी वह सामर्थ्य व्यर्थ चली जाती है तथा वह परलोक में नरकगामी होता है। परंतु एक बार मुझे जाने दो। मैं अपने बालकों को उनकी माता के हाथ में सौंपकर और उन सबको धीरज बँधाकर यहाँ लौट आऊँगा।

उसके ऐसा कहने पर व्याध मन-ही-मन बड़ा विस्मित हुआ। उसका हृदय कुछ शुद्ध हो गया था और उसके सारे पापपुंज नष्ट हो चुके थे। उसने इस प्रकार कहा।

व्याध बोला – जो-जो यहाँ आये, वे सब तुम्हारी ही तरह बातें बनाकर चले गये; परंतु वे वंचक अभी तक यहाँ नहीं लौटे हैं। मृग! तुम भी इस समय संकट में हो, इसलिये झूठ बोलकर चले जाओगे। फिर आज मेरा जीवन-निर्वाह कैसे होगा?

मृग बोला – व्याध! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो। मुझमें असत्य नहीं है। सारा चराचर ब्रह्माण्ड सत्य से ही टिका हुआ है। जिसकी वाणी झूठी होती है, उसका पुण्य उसी क्षण नष्ट हो जाता है; तथापि भील! तुम मेरी सच्ची प्रतिज्ञा सुनो। संध्याकाल में मैथुन तथा शिवरात्रि के दिन भोजन करने से जो पाप लगता है, झूठी गवाही देने, धरोहर को हड़प लेने तथा संध्या न करने से द्विज को जो पाप होता है, वही पाप मुझे भी लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ। जिसके मुख से कभी शिव का नाम नहीं निकलता, जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरों का उपकार नहीं करता, पर्व के दिन श्रीफल तोड़ता, अभक्ष्य-भक्षण करता तथा शिव की पूजा किये बिना और भस्म लगाये बिना भोजन कर लेता है, इन सबका पातक मुझे लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ।

सूतजी कहते हैं – उसकी बात सुनकर व्याध ने कहा – 'जाओ, शीघ्र लौटना।' व्याध के ऐसा कहने पर मृग पानी पीकर चला गया। वे सब अपने आश्रम पर मिले। तीनों ही प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे। आपस में एक-दूसरे के वृत्तान्त को भलीभाँति सुनकर सत्य के पाश से बंधे हुए उन सबने यही निश्चय किया कि वहाँ अवश्य जाना चाहिये। इस निश्चय के बाद वहाँ बालकों को आश्वासन देकर वे सब-के-सब जाने के लिये उत्सुक हो गये। उस समय जेठी मृगी ने वहाँ अपने स्वामी से कहा – 'स्वामिन्! आपके बिना यहाँ बालक कैसे रहेंगे? प्रभो! मैंने ही वहाँ पहले जाकर प्रतिज्ञा की है, इसलिये केवल मुझको जाना चाहिये। आप दोनों यहीं रहें।' उसकी यह बात सुनकर छोटी मृगी बोली – 'बहिन! मैं तुम्हारी सेविका हूँ, इसलिये आज में ही व्याध के पास जाती हूँ। तुम यहीं रहो।' यह सुनकर मृग बोला – 'मैं ही वहाँ जाता हूँ। तुम दोनों यहाँ रहो; क्योंकि शिशुओं की रक्षा माता से ही होती है।' स्वामी की यह बात सुनकर उन दोनों मृगियों ने धर्म की दृष्टि से उसे स्वीकार नहीं किया। वे दोनों अपने पति से प्रेमपूर्वक बोलीं – प्रभो! पति के बिना इस जीवन को धिक्कार है।' तब उन सबने अपने बच्चों को सान्त्वना देकर उन्हें पड़ोसियों के हाथ में सौंप दिया और स्वयं शीघ्र ही उस स्थान को प्रस्थान किया, जहाँ वह व्याधशिरोमणि उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। उन्हें जाते देख उनके वे सब बच्चे भी पीछे-पीछे चले आये। उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि इन माता-पिता की जो गति होगी, वही हमारी भी हो। उन सबको एक साथ आया देख व्याध को बड़ा हर्ष हुआ। उसने धनुष पर बाण रखा। उस समय पुनः जल और बिल्वपत्र शिव के ऊपर गिरे। उससे शिव की चौथे प्रहर की शुभ पूजा भी सम्पन्न हो गयी। उस समय व्याध का सारा पाप तत्काल भस्म हो गया। इतने में ही दोनों मृगियाँ और मृग बोल उठे – 'व्याधशिरोमणे! शीघ्र कृपा करके हमारे शरीर को सार्थक करो।'

उनकी यह बात सुनकर व्याध को बड़ा विस्मय हुआ। शिवपूजा के प्रभाव से उसको दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया। उसने सोचा – 'ये मृग ज्ञानहीन पशु होने पर भी धन्य हैं, सर्वथा आदरणीय हैं; क्योंकि अपने शरीर से ही परोपकार में लगे हुए हैं। मैंने इस समय मनुष्य-जन्म पाकर भी किस पुरुषार्थ का साधन किया? दूसरे के शरीर को पीड़ा देकर अपने शरीर को पोसा है। प्रतिदिन अनेक प्रकार के पाप करके अपने कुटम्ब का पालन किया है। हाय! ऐसे पाप करके मेरी क्या गति होगी? अथवा में किस गति को प्राप्त होऊँगा? मैंने जन्म से लेकर अब तक जो पातक किया है, उसका इस समय मुझे स्मरण हो रहा है। मेरे जीवन को धिक्कार है, धिक्कार है।' इस प्रकार ज्ञानसम्पन्न होकर व्याध ने अपने बाण को रोक लिया और कहा – 'श्रेष्ठ मृगो! तुम जाओ। तुम्हारा जीवन धन्य है।'

व्याध के ऐसा कहने पर भगवान् शंकर तत्काल प्रसन्न हो गये और उन्होंने व्याध को अपने सम्मानित एवं पूजित स्वरूप का दर्शन कराया तथा कृपापूर्वक उसके शरीर का स्पर्श करके उससे प्रेम से कहा – 'भील! मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। वर माँगो।' व्याध भी भगवान् शिव के उस रूप को देखकर तत्काल जीवन्मुक्त हो गया और 'मैंने सब कुछ पा लिया' यों कहता हुआ उनके चरणों के आगे गिर पड़ा। उसके इस भाव को देखकर भगवान् शिव भी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और उसे 'गुह' नाम देकर कृपादृष्टि से देखते हुए उन्होंने उसे दिव्य वर दिये।

शिव बोले – व्याध! सुनो, आज से तुम श्रृंगवेरपुर में उत्तम राजधानी का आश्रय ले दिव्य भोगों का उपभोग करो। तुम्हारे वंश की वृद्धि निर्विघ्नरूप से होती रहेगी। देवता भी तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। व्याध! मेरे भक्तों पर स्नेह रखने वाले भगवान् श्रीराम एक दिन निश्चय ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मेरी सेवा में मन लगाकर दुर्लभ मोक्ष पा जाओगे।

इसी समय वे सब मृग भगवान् शंकर का दर्शन और प्रणाम करके मृगयोनि से मुक्त हो गये तथा दिव्यदेहधारी हो विमान पर बैठकर शिव के दर्शनमात्र से शापमुक्त हो दिव्यधाम को चले गये। तबसे अर्बुद पर्वत पर भगवान् शिव व्याधेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए, जो दर्शन और पूजन करने पर तत्काल भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। महर्षियो! वह व्याध भी उस दिन से दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ अपनी राजधानी में रहने लगा। उसने भगवान् श्रीराम की कृपा पाकर शिव का सायुज्य प्राप्त कर लिया। अनजान में ही इस व्रत का अनुष्ठान करने से उसको सायुज्य मोक्ष मिल गया; फिर जो भक्तिभाव से सम्पन्न होकर इस व्रत को करते हैं, वे शिव का शुभ सायुज्य प्राप्त कर लें, इसके लिये तो कहना ही क्या है। सम्पूर्ण शास्त्रों तथा अनेक प्रकार के धर्मों के विषय में भलीभाँति विचार करके इस शिवरात्रि-व्रत को सबसे उत्तम बताया गया है। इस लोक में जो नाना प्रकार के व्रत, विविध तीर्थ, भाति-भौंति के विचित्र दान, अनेक प्रकार के यज्ञ, तरह-तरह के तप तथा बहुत-से जप हैं, वे सब इस शिवरात्रि- व्रत की समानता नहीं कर सकते। इसलिये अपना हित चाहनेवाले मनुष्यों को इस शुभतर व्रत का अवश्य पालन करना चाहिये। यह शिवरात्रि-व्रत दिव्य है। इससे सदा भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। महर्षियो! यह शुभ शिवरात्रि-व्रत व्रतराज के नाम से विख्यात है।

(अध्याय ४०)