मुक्ति और भक्ति के स्वरूप का विवेचन
ऋषियों ने पूछा – सूतजी! आपने बारंबार मुक्ति का नाम लिया है। यहाँ मुक्ति मिलने पर क्या होता है? मुक्ति में जीव की कैसी अवस्था होती है? यह हमें बताइये।
सूतजी ने कहा – महर्षियो! सुनो। मैं तुमसे संसारक्लेश का निवारण तथा परमानन्द का दान करने वाली मुक्ति का स्वरूप बताता हूँ। मुक्ति चार प्रकार की कही गयी है – सारूप्या, सालोक्या, सांनिध्या तथा चौथी सायुज्या। इस शिवरात्रि-व्रत से सब प्रकार की मुक्ति सुलभ हो जाती है। जो ज्ञानरूप अविनाशी, साक्षी, ज्ञानगम्य और द्वैतरहित साक्षात् शिव हैं, वे ही यहाँ कैवल्यमोक्ष के तथा धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग के भी दाता हैं। कैवल्या नामक जो पाँचवीं मुक्ति है, वह मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। मुनिवरो! मैं उसका लक्षण बताता हूँ, सुनो। जिनसे यह समस्त जगत् उत्पन्न होता है, जिनके द्वारा इसका पालन होता है तथा अन्ततोगत्वा यह जिनमें लीन होता है, वे ही शिव हैं। जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, वही शिव का रूप है। मुनीश्वरो! वेदों में शिव के दो रूप बताये गये हैं – सकल और निष्कल। शिवतत्त्व सत्य, ज्ञान, अनन्त एवं सच्चिदानन्द नाम से प्रसिद्ध है। निर्गुण, उपाधिरहित, अविनाशी, शुद्ध एवं निरंजन (निर्मल) है। वह न लाल है न पीला; न सफेद है न नीला; न छोटा है न बड़ा और न मोटा है न महीन। जहाँ से मन सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है, वह परब्रह्म परमात्मा ही शिव कहलाता है। जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक है, उसी प्रकार यह शिवतत्त्व भी सर्वव्यापी है। यह माया से परे, सम्पूर्ण द्वन्द्वों से रहित तथा मत्सरताशन्य परमात्मा है। यहाँ शिवज्ञान का उदय होने से निश्चय ही उसकी प्राप्ति होती है अथवा द्विजो! सूक्ष्म बद्धि के द्वारा शिव का ही भजन-ध्यान करने से सत्पुरुषों को शिवपद की प्राप्ति होती है।
संसार में ज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, परंतु भगवान का भजन अत्यन्त सुकर माना गया है। इसलिये संतशिरोमणि पुरुष मुक्ति के लिये भी शिव का भजन ही करते हैं। ज्ञानस्वरूप मोक्षदाता परमात्मा शिव भजन के ही अधीन हैं। भक्ति से ही बहुत-से पुरुष सिद्धिलाभ करके प्रसन्नतापूर्वक परम मोक्ष पा गये हैं। भगवान् शम्भु की भक्ति ज्ञान की जननी मानी गयी है जो सदा भोग और मोक्ष देने वाली है। वह साधु महापुरुषों के कृपाप्रसाद से सुलभ होती है। उत्तम प्रेम का अंकुर ही उसका लक्षण है। द्विजो! वह भक्ति भी सगुण और निर्गुण के भेद से दो प्रकार की जाननी चाहिये। फिर वैधी और स्वाभाविकी – ये दो भेद और होते हैं। इनमें वैधी की अपेक्षा स्वाभाविकी श्रेष्ठ मानी गयी है। इनके सिवा नैष्ठिकी और अनैष्ठिकी के भेद से भक्ति के दो प्रकार और बताये गये हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकार की। फिर विहिता और अविहिता के भेद से विद्वानों ने उसके अनेक प्रकार माने हैं। उनके बहुत-से भेद होने के कारण यहाँ विस्तृत वर्णन नहीं किया जा रहा है। उन दोनों प्रकार की भक्तियों के श्रवण आदि भेद से नौ अंग जानने चाहिये। भगवान् की कृपा के बिना इन भक्तियों का सम्पादन होना कठिन है और उनकी कृपा से सुगमतापूर्वक इनका साधन होता है। द्विजो! भक्ति और ज्ञान को शम्भु ने एक-दूसरे से भिन्न नहीं बताया है। इसलिये उनमें भेद नहीं करना चाहिये। ज्ञान और भक्ति दोनों के ही साधक को सदा सुख मिलता है। ब्राह्मणो! जो भक्ति का विरोधी है, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। भगवान् शिव की भक्ति करनेवाले को ही शीघ्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त होता है। अतः मुनीश्वरो! महेश्वर की भक्ति का साधन करना आवश्यक है। उसी से सबकी सिद्धि होगी, इसमें संशय नहीं है। महर्षियो! तुमने जो कुछ पूछा था, उसी का मैंने वर्णन किया है। इस प्रसंग को सुनकर मनुष्य सब पापों से निस्संदेह मुक्त हो जाता है।
(अध्याय ४१)