शिव, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा के स्वरूप का विवेचन
ऋषियों ने पूछा – शिव कौन हैं? विष्णु कौन हैं? रुद्र कौन हैं और ब्रह्मा कौन हैं? इन सब में निर्गुण कौन है? हमारे इस संदेह का आप निवारण कीजिये।
सूतजी ने कहा – महर्षियो! वेद और वेदान्त के विद्वान् ऐसा मानते हैं कि निर्गुण परमात्मा से सर्वप्रथम जो सगुण रूप प्रकट हुआ, उसी का नाम शिव है। शिव से पुरुष सहित प्रकृति उत्पन्न हुई। उन दोनों ने मूल-स्थान में स्थित जल के भीतर तप किया। वह स्थान पंचक्रोशी काशी के नाम से विख्यात है, जो भगवान् शिव को अत्यन्त प्रिय है। यह जल सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त था। उस जल का आश्रय ले योगमाया से युक्त श्रीहरि वहाँ सोये। नार अर्थात् जल को अयन (निवासस्थान) बनाने के कारण फिर 'नारायण' नाम से प्रसिद्ध हुए और प्रकृति 'नारायणी' कहलायी। नारायण के नाभि-कमल से जिनकी उत्पत्ति हुई, वे ब्रह्मा कहलाते हैं। ब्रह्मा ने तपस्या करके जिनका साक्षात्कार किया, उन्हें विष्णु कहा गया है। ब्रह्मा और विष्णु के विवाद को शान्त करने के लिये निर्गुण शिव ने जो रूप प्रकट किया, उसका नाम 'महादेव' है। उन्होंने कहा – 'मैं शम्भु ब्रह्माजी के ललाट से प्रकट होऊँगा' इस कथन के अनुसार समस्त लोकों पर अनुग्रह करने के लिये जो ब्रह्माजी के ललाट से प्रकट हुए, उनका नाम रुद्र हुआ। इस प्रकार रूपरहित परमात्मा सबके चिन्तन का विषय बनने के लिये साकार रूप में प्रकट हुए। वे ही साक्षात् भक्तवत्सल शिव हैं। तीनों गुणों से भिन्न शिव में तथा गुणों के धाम रुद्र में उसी तरह वास्तविक भेद नहीं है, जैसे सुवर्ण और उसके आभूषण में नहीं है। दोनों के रूप और कर्म समान हैं। दोनों समान रूप से भक्तों को उत्तम गति प्रदान करनेवाले हैं। दोनों समान रूप से सबके सेवनीय हैं तथा नाना प्रकार के लीला-विहार करनेवाले हैं। भयानक पराक्रमी रुद्र सर्वथा शिवरूप ही हैं। वे भक्तों के कार्य की सिद्धि कि निमित्त विष्णु और ब्रह्मा की सहायता करने के लिये प्रकट हुए हैं। अन्य जो-जो देवता जिस क्रम से प्रकट हुए हैं, उसी क्रम से लय को प्राप्त होते हैं। परंतु रुद्रदेव उस तरह लीन नहीं होते। उनका साक्षात् शिव में ही लय होता है। ये प्राकृत प्राणी रुद्र में मिलकर ही लय को प्राप्त होते हैं। परंतु रुद्र इनमें मिलकर लय को नहीं प्राप्त होते। यह भगवती श्रुति का उपदेश है। सब लोग रुद्र का भजन करते हैं, किंतु रुद्र किसी का भजन नहीं करते। वे भक्तवत्सल होने के कारण कभी-कभी अपने-आप भक्तजनों का चिन्तन कर लेते हैं। जो दूसरे देवता का भजन करते हैं, वे उसी में लीन होते हैं; इसीलिये वे दीर्घकाल के बाद रुद्र में लीन होने का अवसर पाते हैं। जो कोई रुद्र के भक्त हैं, वे तत्काल शिव हो जाते हैं; अतः उनके लिये दूसरे की अपेक्षा नहीं रहती। यह सनातन श्रुति का संदेश है।
द्विजो! अज्ञान अनेक प्रकार का होता है, परंतु विज्ञान का एक ही स्वरूप है। वह अनेक प्रकार का नहीं होता। उसको समझने का प्रकार मैं बताऊँगा, तुम लोग आदरपूर्वक सुनो। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ भी यहाँ देखा जाता है, वह सब शिवरूप ही है। उसमें नानात्व की कल्पना मिथ्या है। सृष्टि के पूर्व भी शिव की सत्ता बतायी गयी है, सृष्टि के मध्य में भी शिव विराज रहे हैं, सृष्टि के अन्त में भी शिव रहते हैं और जब सब कुछ शून्यता में परिणत हो जाता है, उस समय भी शिव की सत्ता रहती ही है। अतः मुनीश्वरो! शिव को ही चतुर्गुण कहा गया है। वे ही शिव शक्तिमान् होने के कारण 'सगुण' जानने योग्य हैं। इस प्रकार वे सगुण-निर्गण के भेद से दो प्रकार के हैं। जिन शिव ने ही भगवान् विष्णु को सम्पूर्ण सनातन वेद, अनेक वर्ण, अनेक मात्रा तथा अपना ध्यान एवं पूजन दिये हैं, वे ही सम्पूर्ण विद्याओं के ईश्वर हैं – ऐसी सनातन श्रुति है। अतएब शम्भु को 'वेदों का प्राकट्यकर्ता 'तथा 'वेदपति' कहा गया है। वे ही सब पर अनुग्रह करनेवाले साक्षात् शंकर हैं। कर्ता, भर्ता, हर्ता, साक्षी तथा निर्गुण भी वे ही हैं। दूसरों के लिये काल का मान है, परंतु कालस्वरूप रुद्र के लिये काल की कोई गणना नहीं है; क्योंकि वे साक्षात् स्वयं महाकाल हैं और महाकाली उनके आश्रित हैं। ब्राह्मण, रुद्र और काली को एक-से ही बताते हैं। उन दोनों ने सत्य लीला करने वाली अपनी इच्छा से ही सब कुछ प्राप्त किया है। शिव का कोई उत्पादक नहीं है। उनका कोई पालक और संहारक भी नहीं है। ये स्वयं सबके हेतु हैं। एक होकर भी अनेकता को प्राप्त हो सकते हैं और अनेक होकर भी एकता को। एक ही बीज बाहर होकर वृक्ष और फल आदि के रूप में परिणत होता हुआ पुनः बीजभाव को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार शिवरूपी महेश्वर स्वयं एक से अनेक होने में हेतु हैं। यह उत्तम शिवज्ञान तत्त्वतः बताया गया है। ज्ञानवान् पुरुष ही इसको जानता है, दूसरा नहीं।
मुनि बोले – सूतजी! आप लक्षण सहित ज्ञान का वर्णन कीजिये, जिसको जानकर मनुष्य शिवभाव को प्राप्त हो जाता है। सारा जगत् शिव कैसे है अथवा शिव ही सम्पूर्ण जगत् कैसे हैं?
ऋषियों का यह प्रश्न सुनकर पौराणिक-शिरोमणि सूतजी ने भगवान् शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करके उनसे कहा।
(अध्याय ४२)