शिव सम्बन्धी तत्त्वज्ञान का वर्णन तथा उसकी महिमा, कोटिरुद्रसंहिता का माहात्म्य एवं उपसंहार

सूतजी ने कहा – ऋषियो! मैंने शिवज्ञान जैसा सुना है, उसे बता रहा हूँ। तुम सब लोग सुनो, वह अत्यन्त गुह्या और परम मोक्षस्वरूप है। ब्रह्मा, नारद, सनकादि, मुनि व्यास तथा कपिल – इनके समाज में इन्हीं लोगों ने निश्चय करके ज्ञान का जो स्वरूप बताया है, उसी को यथार्थ ज्ञान समझना चाहिये। सम्पूर्ण जगत् शिवमय है, यह ज्ञान सदा अनुशीलन करने योग्य है। सर्वज्ञ विद्वान् को यह निश्चित रूप से जानना चाहिये कि शिव सर्वमय हैं। ब्रह्मा से लेकर तण पर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, वह सब शिव ही हैं। वे महादेवजी ही शिव कहलाते हैं। जब उनकी इच्छा होती है, तब वे इस जगत् की रचना करते हैं। वे ही सबको जानते हैं, उनको कोई नहीं जानता। वे इस जगत् की रचना करके स्वयं इसके भीतर प्रविष्ट होकर भी इससे दूर हैं। वास्तव में उनका इसमें प्रवेश नहीं हुआ है; क्योंकि वे निर्लिप्त, सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। जैसे सूर्य आदि ज्योतियों का जल में प्रतिबिम्ब पड़ता है, वास्तव में जल के भीतर उनका प्रवेश नहीं होता, उसी प्रकार साक्षात् शिव के विषय में समझना चाहिये। वस्तुतः तो वे स्वयं ही सब कुछ हैं। मतभेद ही अज्ञान है; क्योंकि शिव से भिन्न किसी द्वैत वस्तु की सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण दर्शनों में मतभेद ही दिखाया जाता है, परंतु वेदान्ती नित्य अद्बैत तत्त्व का वर्णन करते हैं। जीव परमात्मा शिव का ही अंश है; परंतु अविद्या से मोहित होकर अवश हो रहा है और अपने को शिव से भिन्न समझता है। अविद्या से मुक्त होने पर वह शिव ही हो जाता है। शिव सबको व्याप्त करके स्थित हैं और सम्पूर्ण जन्तुओं में व्यापक हैं। वे जड़ और चेतन – सबके ईश्वर होकर स्वयं ही सबका कल्याण करते हैं। जो विद्वान् पुरुष वेदान्तमार्ग का आश्रय ले उनके साक्षात्कार के लिये साधना करता है, उसे वह साक्षात्काररूप फल अवश्य प्राप्त होता है। व्यापक अग्नितत्त्व प्रत्येक काष्ठ में स्थित है; परंतु जो उस काष्ठ का मन्थन करता है, वही असंदिग्धरूप से अग्नि को प्रकट करके टेखता है। उसी तरह जो बुद्धिमान् यहाँ भक्ति आदि साधनों का अनुष्ठान करता है, उसे अवश्य शिव का दर्शन प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। सर्वत्र केवल शिव हैं, शिव हैं, शिव हैं; दूसरी कोई वस्तु नहीं है। वे शिव भ्रम से ही सदा नाना रूपों में भासित होते हैं।

जैसे समुद्र, मिट्टी अथवा सुवर्ण – ये उपाधिभेद से नानात्व को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार भगवान् शंकर भी उपाधियों से ही अनेक रूपों में भासते हैं। कार्य और कारण में वास्तविक भेद नहीं होता। केवल भ्रम से भरी हुई बुद्धि के द्वारा ही उसमें भेद की प्रतीति होती है। भ्रम दूर होते ही भेदबुद्धि का नाश हो जाता है। जब बीज से अंकुर उत्पन्न होता है, तब वह नानात्व को प्रकट करता है; फिर अन्त में वह बीजरूप में ही स्थित होता है और अंकुर नष्ट हो जाता है। ज्ञानी बीजरूप में ही स्थित है और नाना प्रकार के विकार अंकुररूप हैं। उन विकारस्वरूप अंकुरों की निवृत्ति हो जाने पर पुरुष फिर ज्ञानीरूप में ही स्थित होता है – इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। सब कुछ शिव है और शिव ही सब कुछ हैं। शिव तथा सम्पूर्ण जगत् में कोई भेद नहीं है; फिर क्यों कोई अनेकता देखता है और क्यों एकता ढूँढ़ता है। जैसे एक ही सूर्य नामक ज्योति जल आदि उपाधियों में विशेषरूप से नाना प्रकार की दिखायी देती है, उसी प्रकार शिव भी हैं। जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक होकर भी स्पर्श आदि बन्धन में नहीं आता, उसी प्रकार व्यापक शिव भी कहीं नहीं बँधते। अहंकार से युक्त होने के कारण शिव का अंश जीव कहलाता है। उस अहंकार से मुक्त होने पर वह साक्षात् शिव ही है। कर्मों के भोग में लिप्त होने के कारण जीव तुच्छ है और निर्लिप्त होने के कारण शिव महान् हैं। जैसे एक ही सुवर्ण आदि चाँदी आदि से मिल जाने पर कम कीमत का हो जाता है, उसी प्रकार अहंकारयुक्त जीव अपना महत्त्व खो बैठता है। जैसे क्षार आदि से शुद्ध किया हुआ उत्तम सुवर्ण आदि पूर्ववत् बहुमूल्य हो जाता है, उसी प्रकार संस्कारविशेष से शुद्ध होकर जीव भी शुद्ध हो जाता है।

पहले सद्गुरु को पाकर भक्तिभाव से युक्त हो शिवबुद्धि से उनका पूजन और स्मरण आदि करे। गुरु में शिवबुद्धि करने से सारे पाप आदि मल शरीर से निकल जाते हैं। उस समय अज्ञान नष्ट हो जाता है और मनुष्य ज्ञानवान् हो जाता है। उस अवस्था में अहंकारमुक्त निर्मल बुद्धिवाला जीव भगवान् शंकर के प्रसाद से पुनः शिवरूप हो जाता है। जैसे दर्पण में अपना रूप दिखायी देता है, उसी तरह उसे सर्वत्र शम्भु का साक्षात्कार होने लगता है। वही जीवन्मुक्त कहलाता है। शरीर गिर जाने पर वह जीवन्मुक्त ज्ञानी शिव में मिल जाता है। शरीर प्रारब्ध के अधीन है; जो उस देह के अभिमान से रहित है, उसे ज्ञानी माना गया है। जो शुभ वस्तु को पाकर हर्ष से खिल नहीं उठता, अशुभ को पाकर क्रोध या शोक नहीं करता तथा सुख-दुःख आदि सभी द्वन्द्वों में समभाव रखता है, वह ज्ञानवान् कहलाता है। आत्मचिन्तन से तथा तत्त्वों के विवेक से ऐसा प्रयत्त करे कि शरीर से अपनी पृथक्ता का बोध हो जाय। मुक्ति की इच्छा रखनेवाला पुरुष शरीर एवं उसके अभिमान को त्याग कर अहंकारशून्य एवं मुक्त हो सदाशिव में विलीन हो जाता है। अध्यात्मचिन्तन एवं भगवान् शिव की भक्ति – ये ज्ञान के मूल कारण हैं। भक्ति से साधनविषयक प्रेम की उपलब्धि बतायी गयी है। प्रेम से श्रवण होता है, श्रवण से सत्संग प्राप्त होता है और सत्संग से ज्ञानी गुरु की उपलब्धि होती है। गुरु की कृपा से ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मनुष्य निश्चय ही मुक्त हो जाता है। इसलिये जो समझदार है, उसे सदा शम्भु का ही भजन करना चाहिये। जो अनन्यभक्ति से युक्त होकर शम्भु का भजन करता है, उसे अन्त में अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। अतः मुक्ति की प्राप्ति के लिये भगवान् शंकर से बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। उनकी शरण लेकर जीव संसार-बन्धन से छूट जाता है।

ब्राह्मणो! इस प्रकार वहाँ पधारे हुए ऋषियों ने परस्पर निश्चय करके जो यह ज्ञान की बात बतायी है, इसे अपनी बुद्धि के द्वारा प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये। मुनीश्वरो! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। इसे तुम्हें प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये।

ऋषि बोले – व्यासशिष्य! आपको नमस्कार है। आप धन्य हैं, शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। आपने हमें शिवतत्त्वसम्बन्धी परम उत्तम ज्ञान का श्रवण कराया है। आपकी कृपा से हमारे मन की भ्रान्ति मिट गयी। हम आपसे मोक्षदायक शिवतत्त्व का ज्ञान पाकर बहुत संतुष्ट हुए हैं।

सूतजी ने कहा – द्विजो! जो नास्तिक हो, श्रद्धाहीन हो और शठ हो, जो भगवान् शिव का भक्त न हो तथा इस विषय को सुनने की रुचि न रखता हो, उसे इस तत्त्वज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिये। व्यासजी ने इतिहास, पुराणों, वेदों और शास्त्रों का बारंबार विचार करके उनका सार निकालकर मुझे उपदेश दिया है। इसका एक बार श्रवण करने मात्र से सारे पाप भस्म हो जाते हैं, अभक्त को भक्ति प्राप्त होती है और भक्त की भक्ति बढ़ती है। दुबारा सुनने से उत्तम भक्ति प्राप्त होती है। तीसरी बार सुनने से मोक्ष प्राप्त होता है। अतः भोग और मोक्षरूप फल की इच्छा रखने वाले लोगों को इसका बारंबार श्रवण करना चाहिये। उत्तम फल को पाने के उद्देश्य से इस पुराण की पाँच आवृत्तियाँ करनी चाहिये। ऐसा करने पर मनुष्य उसे अवश्य पाता है, इसमें संदेह नहीं है; क्योंकि यह व्यासजी का वचन है। जिसने इस उत्तम पुराण को सुना है, उसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

यह शिव-विज्ञान भगवान् शंकर को अत्यन्त प्रिय है। यह भोग और मोक्ष देनेवाला तथा शिवभक्ति को बढ़ानेवाला है। इस प्रकार मैंने शिवपुराण की यह चौथी आनन्ददायिनी तथा परम पुण्यमयी संहिता कही है, जो कोटिरुद्रसंहिता के नाम से विख्यात है। जो पुरुष एकाग्रचित्त हो भक्तिभाव से इस संहिता को सुनेगा या सुनायेगा, वह समस्त भोगों का उपभोग करके अन्न्त में परमगति को प्राप्त कर लेगा।

(अध्याय ४३)